सूर्य पुत्र - कर्ण



इतिहास के पन्नों मे कई पात्र ऐसे हैं जिनका नाम ख्याल में आते ही अनेको सवाल उठाते  है । प्रश्नो की संख्या कई बार उस वयक्ति के जीवन यात्रा से भी कही ज्यादा होती है |  ऐसा क्यों था, यह  नीयती थी या समय का नीयत, जो भी था ... ऐसा क्यू  हुआ; ऐसे सवाल बार बार मन को झंझोरते हैं ।  ऐसे ही पात्रो  के श्रेणी में सम्भवतः शिर्ष स्थान महाभारत के महान योद्धा "कर्ण" का है ।    भगवान  का अंश (रवि नंदन) व ज्येष्ट पांडव (कुंती पुत्र) होने के हिसाब से, उसे बनना था अखंड भारत (महाभारत) का पहला सम्राट....... परन्तु दोनों युद्ध (जीवन युद्ध व महाभारत के महायुद्ध) में उसने कुछ को विपरीत स्थान पे ही पाया ।  राधेय, दानवीर, रश्मिरथी
व सूर्य पुत्र .... ये उसके सबसे स्वाभाविक नाम थे, परन्तु वह आजीवन जाना गया सूत-पुत के नाम से ।

यूँ तो धरा से विपरीत दिशा मैं तैर कर मंजील पाने वाला श्रेष्ठ कहलाता है, लेकिन राधेय इस कसोटी पे भी अभागा ही रहा। तमाम विपत्तियों एवं रुकावटों के बावजूद, कर्ण अपनी योग्यता से लगातार बढ़ता गया,  परन्तु अन्तः अपने ही गुरु (भगवन परशुराम) के शाप के कारन, महाभारत युद्ध के दौरान अंतिम परीक्षा पार न केर सका । क्या वह वाकई उस शाप का अधिकारी था ?

कवि नाहर ने इस महाकाव्य में कर्ण के  जीवन के सभी महत्वपूर्ण पहलुओ व घटनाओ को दर्शाया है।
यद्धपि नियती एवं समय के नीयत के उप्पर उठे प्रश्नो का उतर तो कोई नहीं दे सकता; यह महाकाव्य, उन प्रश्नो के सभी पहलुओ का एक निष्पक्ष द्दृष्टिकोण रखने में सफल जरूर है।


यह महाकाव्य अपने आप में विशेष है, क्युकी यह कवी नाहर की अंतिम रचना है , इसकी रचना उन्होंने २००९ में की थी 

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